चोपाई

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तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना । लंकेस्वर भए सब जग जाना ॥17॥ भावार्थ – आपके परम मन्त्र (परामर्श) को विभीषण ने ग्रहण किया। इसके कारण वे लंका के राजा बन गये। इस बात को सारा संसार जानता है।
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जुग सहस्र जोजन पर भानू । लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥18॥ भावार्थ – हे हनुमान जी! [जन्म के समय ही] आपने दो हजार योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को [कोई] मीठा फल समझकर निगल लिया था।
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प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं । जलधि लांघि गये अचरज नाहीं ॥19॥ भावार्थ – आप अपने स्वामी श्री रामचन्द्र जी की मुद्रिका [अँगूठी] को मुख में रखकर [सौ योजन विस्तृत] महासमुद्र को लाँघ गये थे। [आपकी अपार महिमा को देखते हुए] इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।
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दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥20॥ भावार्थ – हे महाप्रभु हनुमान जी! संसार के जितने भी कठिन कार्य हैं वे सब आपकी कृपामात्र से सरल हो जाते हैं।
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राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥21॥ भावार्थ – भगवान् श्री रामचन्द्र जी के द्वार के रखवाले (द्वारपाल) आप ही हैं। आपकी आज्ञा के बिना उनके दरबार में किसी का प्रवेश नहीं हो सकता (अर्थात् भगवान् राम की कृपा और भक्ति प्राप्त करने के लिये आपकी कृपा बहुत आवश्यक है) ।
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सब सुख लहै तुम्हारी सरना । तुम रक्षक काहू को डर ना ॥22॥ भावार्थ – आपकी शरण में आये हुए भक्त को सभी सुख प्राप्त हो जाते हैं। आप जिस के रक्षक हैं उसे किसी भी व्यक्ति या वस्तु का भय नहीं रहता है।
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आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हांक तें कांपै ॥23॥ भावार्थ – अपने तेज [शक्ति, पराक्रम, प्रभाव, पौरुष और बल] – के वेग को स्वयं आप ही सँभाल सकते हैं। आपके एक हुंकारमात्र से तीनों लोक काँप उठते हैं।
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भूत पिसाच निकट नहिं आवै । महाबीर जब नाम सुनावै ॥24॥ भावार्थ – भूत–पिशाच आदि आपका ‘महावीर’ नाम सुनते ही (नामोच्चारण करने वाले के) समीप नहीं आते हैं।
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नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥25॥ भावार्थ – वीर हनुमान जी का निरन्तर जप करने से वे रोगों का नाश करते हैं तथा सभी पीड़ाओं का हरण करते हैं।
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संकट तें हनुमान छुड़ावै । मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥26॥ भावार्थ – हे हनुमान जी ! यदि कोई मन, कर्म और वाणीद्वारा आपका (सच्चे हृदय से) ध्यान करे तो निश्चय ही आप उसे सारे संकटों से छुटकारा दिला देते हैं।

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