रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि हर,
मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो।
धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को,
सोखिबे कृसानु पोषिबे को हिम भानु भो॥
खल दु:ख दोषिबे को, जन परितोषिबे को,
माँगिबो मलीनता को मोदक दुदान भो।
आरत की आरति निवारिबे को तिहूँ पुर,
तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो॥११॥
भावार्थ – आप सृष्टि रचना के लिये ब्रह्मा, पालन करने को विष्णु, मारनेको रुद्र और जिलानेके लिये अमृतपानके समान हुए; धारण करने में धरती, अन्धकारको नसानेमें सूर्य देव, सुखानेमें अग्नि , पोषण करनेमें चन्द्रमा और सूर्य हुए; खलोंको दुःख देने और दूषित बनानेवाले, सेवकोंको संतुष्ट करनेवाले एवं माँगनारूपी मैलेपनका विनाश करनेमें मोदकदाता हुए। तीनों लोकोंमें दुःखियोंके दुःख छुड़ानेके लिये तुलसीके स्वामी श्रीहनुमान जी दृढ़प्रतिज्ञ हुए हैं॥ ११ ॥
सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि,
सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को।
देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ,
बापुरे बराक कहा और राजा राँक को॥
जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद,
ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को।
सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ तहाँ ताहि,
जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को॥१२॥
भावार्थ – सेवक हनुमान जीकी सेवा समझकर जानकीनाथने संकोच माना अर्थात् एहसानसे दब गये, शिवजी पक्षमें रहते और स्वर्गके स्वामी इन्द्र नवते हैं। देवी-देवता, दानव सब दयाके पात्र बनकर हाथ जोड़ते हैं, फिर दूसरे बेचारे दरिद्र-दुःखिया राजा कौन चीज हैं। जागते, सोते, बैठते, डोलते, क्रीड़ा करते और आनन्दमें मग्न (पवनकुमारके) सेवकका अनिष्ट चाहेगा ऐसा कौन सिद्धान्तका समर्थ है? उसका जहाँ-तहाँ सब दिन श्रेष्ठ रीतिसे पूरा पड़ेगा, जिसके हृदयमें अंजनीकुमारकी हाँकका भरोसा है॥ १२ ॥
सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि,
लोकपाल सकल लखन राम जानकी।
लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि,
तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी॥
केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब,
कीरति बिमल कपि करुनानिधान की।
बालक ज्यों पालि हैं कृपालु मुनि सिद्धता को,
जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की॥१३॥
भावार्थ – जिसके हृदयमें हनुमान जीकी हाँक उल्लसित होती है, उसपर अपने सेवकों और पार्वतीजी के सहित शंकरभगवान् , समस्त लोकपाल, श्रीरामचन्द्र, जानकी और लक्ष्मणजी भी प्रसन्न रहते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं फिर लोक और परलोकमें शोकरहित हुए उस प्राणीको तीनों लोकोंमें किसी योद्धाके आश्रित होनेकी क्या लालसा होगी? दयानिकेत केसरीनन्दन निर्मल कीर्तिवाले हनुमान जीके प्रसन्न होनेसे सम्पूर्ण सिद्ध-मुनि उस मनुष्यपर दयालु होकर बालकके समान पालन करते हैं, उन करुणानिधान कपीश्वरकी कीर्ति ऐसी ही निर्मल है ॥ १३ ॥
करुनानिधान बलबुद्धि के निधान हौ,
महिमा निधान गुनज्ञान के निधान हौ।
बाम देव रुप भूप राम के सनेही, नाम,
लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ॥
आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील,
लोक बेद बिधि के बिदूष हनुमान हौ।
मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार,
तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ॥१४॥
भावार्थ – तुम दया के स्थान, बुद्धि-बलके धाम, आनंद महिमा के मन्दिर | और गुण-ज्ञानके निकेतन हो; राजा रामचन्द्र के स्नेही, शंकरजीके रूप और नाम लेनेसे अर्थ, धर्म, काम, मोक्षके देनेवाले हो। हे हनुमान जी ! आप अपनी शक्तिसे श्रीरघुनाथजीके शील-स्वभाव, लोक-रीति और वेद-विधिके पण्डित हो! मन, वचन, कर्म तीनों प्रकारसे तुलसी आपका दास है, आप चतुर स्वामी हैं। अर्थात् भीतर-बाहरकी सब जानते हैं ॥ १४ ॥
मन को अगम तन सुगम किये कपीस,
काज महाराज के समाज साज साजे हैं।
देवबंदी छोर रनरोर केसरी किसोर,
जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं॥
बीर बरजोर घटि जोर तुलसी की ओर,
सुनि सकुचाने साधु, खलगन गाजे हैं।
बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं,
जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं॥१५॥
भावार्थ – हे कपिराज! महाराज रामचन्द्रजीके कार्यके लिये सारा साज-समाज सजकर जो काम मनको दुर्गम था, उसको आपने शरीरसे करके सुलभ कर दिया। हे केशरीकिशोर! आप देवताओंको बन्दीखानेसे मुक्त करनेवाले, संग्रामभूमिमें कोलाहल मचानेवाले हैं, और आपकी नामवरी युग-युगसे संसारमें विराजती है। हे जबरदस्त योद्धा ! आपका बल तुलसीके लिये क्यों घट गया, जिसको सुनकर साधु सकुचा गये हैं और दुष्टगण प्रसन्न हो रहे हैं। हे अंजनीकुमार ! मेरी बिगड़ी बात उसी तरह सुधारिये जिस प्रकार आपके प्रसन्न होनेसे होती (सुधरती) आयी है॥ १५ ॥
सवैया
जान सिरोमनि हो हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो।
ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हीं तो तिहारो॥
साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहां तुलसी को न चारो।
दोष सुनाये तें आगेहूँ को होशियार ह्वै हों मन तो हिय हारो॥१६॥
भावार्थ – हे हनुमान जी ! आप ज्ञानशिरोमणि हैं और सेवकोंके मनमें आपका सदा निवास है। मैं किसीका क्या गिराता वा बिगाड़ता हूँ। फिर आप किस कारण अप्रसन्न हैं, मैं तो आपका दास हूँ। हे स्वामी ! आपने मुझे सेवकके नातेसे च्युत कर दिया, इसमें तुलसीका कोई वश नहीं है। यद्यपि मन हृदयमें हार गया है तो भी मेरा अपराध सुना दीजिये, जिसमें आगेके लिये होशियार हो जाऊँ ॥ १६ ॥
तेरे थपै उथपै न महेस, थपै थिर को कपि जे उर घाले।
तेरे निबाजे गरीब निबाज बिराजत बैरिन के उर साले॥
संकट सोच सबे तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले।
बूढ भये बलि मेरिहिं बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले॥१७॥
भावार्थ – हे वानरराज! आपके बसाये हुएको शंकरभगवान् भी नहीं उजाड़ सकते और जिस घरको आपने नष्ट कर दिया उसको कौन बसा सकता है ? हे गरीबनिवाज! आप जिसपर प्रसन्न हुए, वे शत्रुओंके हृदयमें पीड़ारूप होकर विराजते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं, आपका नाम लेनेसे सम्पूर्ण संकट और सोच मकड़ीके जालेके समान फट जाते हैं। बलिहारी! क्या आप मेरी ही बार बूढ़े हो गये अथवा बहुत-से गरीबोंका पालन करते-करते अब थक गये हैं? (इसीसे मेरा संकट दूर करनेमें ढील कर रहे हैं) ॥ १७॥
सिंधु तरे बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवा से।
तैं रनि केहरि केहरि के बिदले अरि कुंजर छैल छवासे॥
तोसों समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से।
बानर बाज बढ़े खल खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवासे॥१८॥
भावार्थ – आपने समुद्र लाँघकर बड़े-बड़े दुष्ट राक्षसोंका विनाश करके लंका-जैसे विकट गढ़को जलाया। हे संग्रामरूपी वनके सिंह! राक्षस शत्रु बने-ठने हाथीके बच्चेके समान थे, आपने उनको सिंहकी भाँति विनष्ट कर डाला। आपके बराबर समर्थ और अच्छे स्वामीकी सेवा करते हुए तुलसी दोष और दुःखकी आगको सहन करे [यह आश्चर्यकी बात है । हे वानररूपी बाज ! बहुत-से दुष्टजनरूपी पक्षी बढ़ गये हैं, उनको आप बटेरके समान क्यों नहीं लपेट लेते ? ॥१८॥
अच्छ विमर्दन कानन भानि दसानन आनन भा न निहारो।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन से कुंजर केहरि बारो॥
राम प्रताप हुतासन, कच्छ, विपच्छ, समीर समीर दुलारो।
पाप तें साप तें ताप तिहूँ तें सदा तुलसी कह सो रखवारो॥१९॥
भावार्थ – हे अक्षयकुमारको मारनेवाले हनुमान जी ! आपने अशोक वाटिकाको विध्वंस किया और रावण-जैसे प्रतापी योद्धाके मुखके तेजकी ओर देखातक नहीं अर्थात् उसकी कुछ भी परवाह नहीं की। आप मेघनाद, अकम्पन और कुम्भकर्ण-सरीखे हाथियोंके मदको चूर्ण करनेमें किशोरावस्थाके सिंह हैं। विपक्षरूप तिनकोंके ढेरके लिये भगवान् रामका प्रताप अग्नितुल्य है और पवनकुमार उसके लिये पवनरूप हैं। वे पवननन्दन ही तुलसीदासको सर्वदा पाप, शाप और संताप-तीनोंसे बचानेवाले हैं ॥ १९ ॥
घनाक्षरी
जानत जहान हनुमान को निवाज्यो जन,
मन अनुमानि बलि बोल न बिसारिये।
सेवा जोग तुलसी कबहूँ कहा चूक परी,
साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये॥
अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति,
मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये।
साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के,
बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये॥२०॥
भावार्थ – -हे हनुमान जी ! बलि जाता हूँ, अपनी प्रतिज्ञाको न भुलाइये, जिसको संसार जानता है, मनमें विचारिये, आपका कृपापात्र जन बाधारहित और सदा प्रसन्न रहता है। हे स्वामी कपिराज! तुलसी कभी सेवाके योग्य था? क्या चूक हुई है, अपनी साहिबीको सँभालिये, मुझे अपराधी समझते हों तो सहस्रों भाँतिकी दुर्दशा कीजिये, किंतु जो लड्डू देनेसे मरता हो उसको विषसे न मारिये। हे महाबली, साहसी, पवनके दुलारे, रघुनाथजीके प्यारे! भुजाओंकी पीड़ाको शीघ्र ही दूर कीजिये ॥ २० ॥