दूत राम राय को, सपूत पूत वाय को,
समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को।
बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत,
रावन सो भट भयो मुठिका के धाय को॥
एते बडे साहेब समर्थ को निवाजो आज,
सीदत सुसेवक बचन मन काय को ।
थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को,
कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को॥३१॥
भावार्थ – आप राजा रामचन्द्रके दूत, पवनदेवके सत्पुत्र, हाथ-पाँवके समर्थ और निराश्रितोंके सहायक हैं। आपके सुन्दर यशकी कथा विख्यात है, वेद गान करते हैं और रावण-जैसा त्रिलोकविजयी योद्धा आपके घूँसेकी चोटसे घायल हो गया। इतने बड़े योग्य स्वामीके अनुग्रह करनेपर भी आपका श्रेष्ठ सेवक आज तन-मन- वचन से दुःख पा रहा है। तुलसीको इस थोड़ी-सी बाहु-पीड़ाकी बड़ी ग्लानि है, मेरे कौन-से पापके कारण वा क्रोधसे आपका प्रत्यक्ष प्रभाव लुप्त हो गया है? ॥३१ ॥
देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग,
छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं।
पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाग,
राम दूत की रजाई माथे मानि लेत हैं॥
घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग,
हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं।
क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को,
सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं॥३२॥
भावार्थ – देवी, देवता, दैत्य, मनुष्य, मुनि, सिद्ध और नाग आदि छोटे-बड़े जितने जड़-चेतन जीव हैं तथा पूतना, पिशाचिनी, राक्षसी-राक्षस जितने कुटिल प्राणी हैं, वे सभी रामदूत पवनकुमारकी आज्ञा शिरोधार्य करके मानते हैं। भीषण यन्त्र- मन्त्र, धोखाधारी, छलबाज और दुष्ट रोगोंके आक्रमण हनुमान जीकी दोहाई सुनकर स्थान छोड़ देते हैं। मेरे खोटे कर्मपर क्रोध कीजिये, तुलसीको सिखावन दीजिये और जो दोष हमें दुःख देते हैं उनका सुधार करिये ॥३२॥
तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों,
तेरे घाले जातुधान भये घर घर के।
तेरे बल राम राज किये सब सुर काज,
सकल समाज साज साजे रघुबर के॥
तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत,
सजल बिलोचन बिरंचि हरिहर के।
तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीस नाथ,
देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के॥३३॥
भावार्थ – आपके बलने युद्ध में वानरों को रावण से बताया और आपके ही नष्ट करनेसे राक्षस घर-घरके (तीन-तेरह) हो गये। आपके ही बलसे राजा रामचन्द्रजीने देवताओंका सब काम पूरा किया और आपने ही रघुनाथजीके समाजका सम्पूर्ण साज सजाया। आपके गुणोंका गान सुनकर देवता रोमांचित होते हैं और ब्रह्मा, विष्णु, महेशकी आँखोंमें जल भर आता है। हे वानरोंके स्वामी ! तुलसीके माथेपर हाथ फेरिये, आप-जैसे अपनी मर्यादाकी लाज रखनेवालोंके दास कभी दु:खी नहीं देखे गये॥ ३३ ॥
पालो तेरे ट्रक को परेहू चूक मूकिये न,
कूर कौड़ी दूको हों आपनी ओर हेरिये।
भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थीरे दोष,
पोषि तोषि थापि आपनो न अव डेरिये॥
अँबुतू हों अँबु चूर, अँबु तू हों डिंभ सो न,
बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये ।
बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि,
तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये॥३४॥
भावार्थ – आपके टुकड़ोंसे पला हूँ, चूक पड़नेपर भी मौन न हो जाइये। मैं कुमार्गी दो कौड़ीका हूँ, पर आप अपनी ओर देखिये। हे भोलानाथ! अपने भोलेपनसे ही आप थोड़े दोषसे रुष्ट हो जाते हैं, सन्तुष्ट होकर मेरा पालन करके मुझे बसाइये, अपना सेवक समझकर दुर्दशा न कीजिये। आप जल हैं तो मैं मछली हूँ, आप माता हैं तो मैं छोटा बालक हूँ, देरी न कीजिये, मुझको आपका ही सहारा है। बच्चेको व्याकुल जानकर प्रेमकी पहचान करके रक्षा कीजिये, तुलसीकी बाँहपर अपनी लंबी पूँछ फेरिये (जिससे पीड़ा निर्मूल हो जावे) ॥ ३४॥
घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं,
बासर जलद घन घटा धुकि धाई है।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस,
रोष बिनु दोष धूम मूल मलिनाई है ॥
करुनानिधान हनुमान महा बलवान,
हेरि हँसि हाँकि फूंकि फौंजै ते उड़ाई है।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि,
केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है॥३५॥
भावार्थ – रोगों, बुरे योगों और दुष्ट लोगोंने मुझे इस प्रकार घेर लिया है जैसे दिनमें बादलोंका घना समूह झपटकर आकाशमें दौड़ता है। पीड़ारूपी जल बरसाकर इन्होंने क्रोध करके बिना अपराध यशरूपी जवासेको अग्निकी तरह झुलसकर मूर्च्छित कर दिया। हे दयानिधान महाबलवान् हनुमान जी! आप हँसकर निहारिये और ललकारकर विपक्षकी सेनाको अपनी फूँक से उड़ा दीजिये। हे केशरीकिशोर वीर! तुलसीको कुरोगरूपी निर्दय राक्षसने खा लिया था, आपने जोरावरीसे मेरी रक्षा की है ॥ ३५ ॥
सवैया
राम गुलाम तु ही हनुमान,
गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो।
पाल्यो हों बाल ज्यों आखर दू,
पितु मातु सों मंगल मोद समूलो॥
बाँह की बेदन बाँह पगार,
पुकारत आरत आनॉँद भूलो।
श्री रघुबीर निवारिये पीर,
रहौं दरबार परो लटि लूलो॥३६॥
भावार्थ – हे गोस्वामी हनुमान जी! आप श्रेष्ठ स्वामी और सदा श्रीरामचन्द्रजीके सेवकोंके पक्षमें रहनेवाले हैं। आनन्द-मंगलके मूल दोनों अक्षरों (राम-नाम)-ने माता-पिताके समान मेरा पालन किया है। हे बाहुपगार (भुजाओंका आश्रय देनेवाले)! बाहुकी पीड़ासे मैं सारा आनन्द भुलाकर दु:खी होकर पुकार रहा हूँ। हे रघुकुलके वीर! पीड़ा को दूर कीजिये, जिससे दुर्बल और पंगु होकर भी आपके दरबारमें पड़ा रहूँ॥ ३६ ॥
घनाक्षरी
काल की करालता करम कठिनाई कीधी,
पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे।
बेदन कुरभाँति सो सही न जाति राति दिन,
सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ॥
लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि,
सींचिये मलीन भो तयो है तिहँ तावरे।
भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान,
जानियत सबही की रीति राम रावरे॥३७॥
भावार्थ – न जाने काल की भयानकता है कि कर्म की कठिनाई है, पापका प्रभाव है अथवा स्वाभाविक बातकी उन्मत्तता है। रात-दिन बुरी तरहकी पीड़ा हो रही है, जो सही नहीं जाती और उसी बाँहको पकड़े हुए है जिसको पवनकुमारने पकड़ा था । तुलसीखरूपी वृक्ष आपका ही लगाया हुआ है। यह तीनों तापोंकी ज्वालासे झुलसकर मुरझा गया है, इसकी ओर निहारकर कृपारूपी जलसे सींचिये। हे दयानिधान रामचन्द्रजी! आप भूतोंकी, अपनी और विरानेकी सबकी रीति जानते हैं ॥ ३७ ॥
पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुंह पीर,
जर जर सकल पीर मई है।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह,
मोहि पर दवरि दमानक सी दई है॥
हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारे हीतें,
ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है।
कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि,
हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है॥३८॥
भावार्थ – पाँवकी पीड़ा, पेटकी पीड़ा, बाहुकी पीड़ा और मुखकी पीड़ा – सारा शरीर पीड़ा माय होकर जीर्ण-शीर्ण हो गया है। देवता, प्रेत, पितर, कर्म, काल और दुष्टग्रह-सब साथ ही दौरा करके मुझपर तोपोंकी बाड़-सी दे रहे हैं। बलि जाता हूँ। मैं तो लड़कपनसे ही आपके हाथ बिना मोल बिका हुआ हूँ और अपने कपालमें रामनामका आधार लिख लिया है। हाय राजा रामचन्द्रजी! कहीं ऐसी दशा भी हुई है कि अगस्त्य मुनिका सेवक गायके खुरमें डूब गया हो॥ ३८॥
बाहुक सुबाहु नीच लीचर मरीच मिलि,
मुँह पीर केतुजा कुरोग जातुधान है।
राम नाम जप जाग कियो चहों सानुराग,
काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान है॥
सुमिरे सहाय राम लखन आखर दौऊ,
जिनके समूह साके जागत जहान है।
तुलसी सँभारि ताडका सँहारि भारि भट,
बेधे बरगद से बनाई बानवान है॥३९॥
भावार्थ – बाहुकी पीड़ारूप नीच सुबाहु और देहकी अशक्तिरूप मारीच राक्षस और ताकारूपिणी मुखकी पीड़ा एवं अन्यान्य बुरे रोगरूप राक्षसोंसे मिले हुए हैं। मैं रामनामका जपरूपी यज्ञ प्रेमके साथ करना चाहता हूँ, पर कालदूतके समान ये भूत क्या मेरे काबूके हैं ? (कदापि नहीं।) संसारमें जिनकी बड़ी नामवरी हो रही है वे (रा और म) दोनों अक्षर स्मरण करनेपर मेरी सहायता करेंगे। हे तुलसी! तू ताड़काका वध करनेवाले भारी योद्धाका स्मरण कर, वह इन्हें अपने बाणका निशाना बनाकर बड़के फलके समान भेदन (स्थानच्युत) कर देंगे ॥ ३९ ॥
बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो,
राम नाम लेत माँगि खात टूक टाक हीं।
परयो लोक रीति में पुनीत प्रीति राम राय,
मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हाँ॥
खोटे खोटे आचरन आचरत अपनायो,
अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हाँ ।
तुलसी गुर्साँई भयो भोंडे दिन भूल गयो,
ताको फल पावत निदान परिपाक हीं॥४०॥
भावार्थ – मैं बाल्यावस्थासे ही सीधे मनसे श्रीरामचन्द्रजीके सम्मुख हुआ, मुँहसे रामनाम लेता टुकड़ा-टुकड़ी माँगकर खाता था। (फिर युवावस्थामें) लोकरीतिमें पड़कर अज्ञानवश राजा रामचन्द्रजीके चरणोंकी पवित्र प्रीतिको चटपट (संसारमें) कूदकर तोड़ बैठा। उस समय खोटे-खोटे आचरणोंको करते हुए मुझे अंजनीकुमारने अपनाया और रामचन्द्रजीके पुनीत हाथोंसे मेरा सुधार करवाया। तुलसी गोसाईं हुआ, पिछले खराब दिन भुला दिये, आखिर उसीका फल आज अच्छी तरह पा रहा हूँ॥ ४० ॥