सुविचार

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होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥ अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥ अर्थ :तुलसीदास जी कहते कि, जो कुछ इस संसार में राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा बढ़ावे। अर्थात इस विषय में तर्क करने से कोई लाभ नहीं। ऐसा कहकर भगवान शिव हरि का नाम जपने लगे और सती वहाँ गईं जहाँ सुख के धाम प्रभु राम थे।
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धन्य देश सो जहं सुरसरी। धन्य नारी पतिव्रत अनुसारी॥ धन्य सो भूपु नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई॥ अर्थ : वह देश धन्य है, जहां गंगा जी बहती हैं। वह स्त्री धन्य है जो पतिव्रत धर्म का पालन करती है। वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और वह ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता है।
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अगुण सगुण गुण मंदिर सुंदर, भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर। काम क्रोध मद गज पंचानन, बसहु निरंतर जन मन कानन।। अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि हे गुणों के मंदिर ! आप सगुण और निर्गुण दोनों है। आपका प्रबल प्रताप सूर्य के प्रकाश के समान काम, क्रोध, मद और अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करने वाला है। आप सर्वदा ही अपने भक्तजनों के मनरूपी वन में निवास करने वाले हैं।
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अगुण सगुण गुण मंदिर सुंदर, भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर। काम क्रोध मद गज पंचानन, बसहु निरंतर जन मन कानन।। अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि हे गुणों के मंदिर ! आप सगुण और निर्गुण दोनों है। आपका प्रबल प्रताप सूर्य के प्रकाश के समान काम, क्रोध, मद और अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करने वाला है। आप सर्वदा ही अपने भक्तजनों के मनरूपी वन में निवास करने वाले हैं।
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करमनास जल सुरसरि परई, तेहि काे कहहु शीश नहिं धरई। उलटा नाम जपत जग जाना, बालमीकि भये ब्रह्मसमाना।। अर्थ: तुलसीदास कहते है कि कर्मनास का जल (जो कि अशुद्ध से अशुद्ध जल) यदि गंगा में पड़ जाए तो उसे कौन सिर नहीं पर रखता है? अर्थात अशुद्ध जल भी गंगा के साथ मिलकर गंगा के समान पवित्र हो जाता है। सारे संसार को विदित है की उल्टा नाम का जाप करके वाल्मीकि जी ब्रह्म के समान हो गए।
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कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥ दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी॥ अर्थ : हे भगवान श्री राम ! आपको मेरा प्रणाम और आपसे निवेदन है - हे प्रभु! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्ण हैं अर्थात आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है, तथापि दीन-दुःखियों पर दया करना आपका प्रकृति है, अतः हे नाथ ! आप मेरे भारी संकट को हर लीजिए |
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मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तुम अभिमान। भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥ अर्थ : मोह ही जिनका मूल आधार है, ऐसे अज्ञानजनित, बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का हमें त्याग कर चाहिए और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान श्री रामचंद्रजी का भजन करना चाहिए।
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एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥ मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥ अर्थ : रामचरितमानस में श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, मंगल (कल्याण) करने वाला और अमंगल को हरने वाला है, जिसे पार्वती जी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं।
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जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥ तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥ अर्थ :हे भवानी सुनो जिनका नाम जपकर ज्ञानी मनुष्य संसार रूपी जन्म-मरण के बंधन को काट डालते हैं, क्या उनका दूत किसी बंधन में बंध सकता है? लेकिन प्रभु के कार्य के लिए हनुमान जी ने स्वयं को शत्रु के हाथ से बंधवा लिया।
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हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥ रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥ अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि, हरि अनंत हैं अर्थात उनका कोई पार नहीं पा सकता और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। भगवान श्री रामचंद्र के सुंदर चरित्र का कोई बखान नहीं कर सकता क्युकि सुंदर चरित्र को करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते।

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