॥दोहा॥
बीर बखानौं पवनसुत,जनत सकल जहान ।
धन्य-धन्य अंजनि-तनय , संकर, हर, हनुमान्॥
भावार्थ:
वीर पवनकुमार की कीर्ति का वर्णन करता हूँ जिसको सारा संसार जानता है। हे आंजनेय ! हे भगवान शंकर के अवतार हनुमानजी ! आप धन्य हैं, धन्य हैं ।
जय जय जय हनुमान अडंगी । महावीर विक्रम बजरंगी ॥
जय कपीश जय पवन कुमारा । जय जगबन्दन सील अगारा ॥
जय आदित्य अमर अबिकारी । अरि मरदन जय-जय गिरधारी ॥
अंजनि उदर जन्म तुम लीन्हा । जय-जयकार देवतन कीन्हा ॥
भावार्थ:
हे हनुमानजी ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो । आपकी गति अबाध है । कोई आपका मार्ग नहीं रोक सकता । हे वज्र के समान कठोर अंगों वाले महावीर ! आपकी जय हो, जय हो । हे कपियों के राजा ! आपकी जय हो । हे पवनपुत्र ! आपकी जय हो । हे सारे संसार के वंदनीय ! हे गुणों के भंडार ! आपकी जय हो । हे कर्तव्य- प्रवीण , हे देवता , हे अविकारी ! आपकी जय हो । हे शत्रुओं का नाश करने वाले ! आपकी जय हो। हे द्रोणाचल को उठाने वाले ! आपकी जय हो । आपने माता अंजनी के गर्भ से जन्म लिया । तब देवताओं ने जय- जयकार की ।।१।।
बाजे दुन्दुभि गगन गम्भीरा । सुर मन हर्ष असुर मन पीरा ॥
कपि के डर गढ़ लंक सकानी । छूटे बंध देवतन जानी ॥
ऋषि समूह निकट चलि आये । पवन तनय के पद सिर नाये ॥
बार-बार अस्तुति करि नाना । निर्मल नाम धरा हनुमाना ॥
भावार्थ:
आकाश में नगाड़े बजे, देवता मन में हर्षित हुए, असुरों के मन में पीड़ा हुई। आपके डर से लंका के किले में रहने वाले भयभीत हो गये । आपने देवताओं को कारागार से छुड़ाया। यह सब जानते हैं। ऋषियों के समूह आपके पास आय और हे पवनकुमार ! आपके चरणों में सिर नवाये और बहुत प्रकार से बार-बार स्तुति की और आपका पावन नाम ‘ हनुमान् ‘ रखा गया ॥२॥
सकल ऋषिन मिलि अस मत ठाना । दीन्ह बताय लाल फल खाना ॥
सुनत बचन कपि मन हर्षाना । रवि रथ उदय लाल फल जाना ॥
रथ समेत कपि कीन्ह अहारा । सूर्य बिना भए अति अंधियारा ॥
विनय तुम्हार करै अकुलाना । तब कपीस की अस्तुति ठाना ॥
भावार्थ:
सब ऋषियों ने सर्वसम्मति से आपको लाल फल खाने की प्रेरणा दी जिसे सुनकर आप बहुत हर्षित हुए और सूर्य को लाल फल समझ कर रथ समेत पकड़ लिया। आपने सूर्य को रथ सहित मुँह में रख लिया। तब अत्यन्त भय छा गया और हाहाकार मच गया। सूर्य के बिना सब देवता और मुनि व्याकुल होकर आपकी स्तुति करने लगे॥३॥
सकल लोक वृतान्त सुनावा । चतुरानन तब रवि उगिलावा ॥
कहा बहोरि सुनहु बलसीला । रामचन्द्र करिहैं बहु लीला ॥
तब तुम उन्हकर करेहू सहाई । अबहिं बसहु कानन में जाई ॥
असकहि विधि निजलोक सिधारा । मिले सखा संग पवन कुमारा ॥
भावार्थ:
सारे संसार की दशा सुनकर ब्रह्माजी ने सूर्य को मुक्त करने के लिए आपको मनाया। तब आपसे विनती की , हे महावीर ! सुनिये । श्री रामचंद्र जी महान लीला करेंगे तब आपा उनकी सहायता करियेगा । अभी तो आप वन में जाकर रहिये । यह कहकर ब्रह्माजी अपने लोक को चले गए
और हे पवनकुमार । आप अपने सखाओं में मिल गए॥४॥
खेलैं खेल महा तरु तोरैं । ढेर करैं बहु पर्वत फोरैं ॥
जेहि गिरि चरण देहि कपि धाई । गिरि समेत पातालहिं जाई ॥
कपि सुग्रीव बालि की त्रासा । निरखति रहे राम मगु आसा ॥
मिले राम तहं पवन कुमारा । अति आनन्द सप्रेम दुलारा ॥
भावार्थ:
खेल-खेल में आपने बड़े – बड़े वृक्ष तोड़ डाले और पर्वतों को फोड़ – फोड़ कर मार्ग बनाया । हे हनुमानजी ! जिस पर्वत पर आपने चरण रखे वह प्रकाशमान होकर रसातल में चला गया। सुग्रीवजी बाली से डरे हुए थे । श्रीरामचन्द्र की प्रतीक्षा करते हुए निर्भय रहते थे । हे पवनकुमार ! आपने लाकर उन्हें श्रीरामचन्द्र जी से मिला दिया। और हे पवनदेव ! आपको इसमें बहुत आनन्द हुआ॥५॥
मनि मुंदरी रघुपति सों पाई । सीता खोज चले सिरु नाई ॥
सतयोजन जलनिधि विस्तारा । अगम अपार देवतन हारा ॥
जिमि सर गोखुर सरिस कपीसा । लांघि गये कपि कहि जगदीशा ॥
सीता चरण सीस तिन्ह नाये । अजर अमर के आसिस पाये ॥
भावार्थ:
हे हनुमानजी ! श्री राघवेंद्र से आपको मणि जड़ित अंगूठी मिली जिसे लेकर आप श्रीसीताजी की खोज करने चले। हे हनुमानजी ! सौ योजन का विशाल , अथाह , समुद्र जिसे देवता और मुनि भी पार नहीं कर सकते थे , उसे आपने ‘जय श्रीराम ‘ कहकर बिना थके हुए सहज हीं गऊ के खुर के समान लाँघ लिया । और सीताजी के पास पहुँचकर उनके चरणकमल में सिर नवाया जिस पर सीताजी से आपने अजर अमर होने का आशीर्वाद पाया ॥६॥
रहे दनुज उपवन रखवारी । एक से एक महाभट भारी ॥
तिन्हैं मारि पुनि कहेउ कपीसा । दहेउ लंक कोप्यो भुज बीसा ॥
सिया बोध दै पुनि फिर आये । रामचन्द्र के पद सिर नाये।
मेरु उपारि आप छिन माहीं । बांधे सेतु निमिष इक मांहीं ॥
भावार्थ:
एक-से-एक भयंकर योद्धा , राक्षस वाटिका की रखवाली करते थे। उन्हें आपने मारा, उपवन को नष्ट किया , लंका को जलाया जिससे रावण भयभीत होकर काँप गया। आपने सीताजी को धीरज दिया औत लौट कर श्रीरामचन्द्र के चरणों में सिर नवाया । बड़े – बड़े पर्वतों को लाकर आपने पलभर में समुद्र पर पुल बँधाया ॥७॥
लछमन शक्ति लागी उर जबहीं । राम बुलाय कहा पुनि तबहीं ॥
भवन समेत सुषेन लै आये । तुरत सजीवन को पुनि धाये ॥
मग महं कालनेमि कहं मारा । अमित सुभट निसिचर संहारा ॥
आनि संजीवन गिरि समेता । धरि दीन्हों जहं कृपा निकेता ॥
भावार्थ:
जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी तब श्रीरामचंद्र ने बहुत विलाप किया। आप सुषेन वैद्य को भवन समेत ही उठा लाए आप बड़े वेग से संजीवनी बूटी लेने गए। रास्ते में कालनेमि को मारा और असंख्य योद्धा- निशाचरों को नष्ट किया। आपने पर्वत सहित संजीवनी को लाकर करुणानिधान श्रीरामचंद्र के पास रख दिया ॥८॥
फनपति केर सोक हरि लीन्हा । वर्षि सुमन सुर जय जय कीन्हा ॥
अहिरावण हरि अनुज समेता । लै गयो तहां पाताल निकेता ॥
जहां रहे देवि अस्थाना । दीन चहै बलि काढ़ि कृपाना ॥
पवनतनय प्रभु कीन गुहारी । कटक समेत निसाचर मारी ॥
भावार्थ:
आपने लक्ष्मण जी के संकट को दूर कर दिया। देवताओं ने पुष्प-वर्षा करके जय-जयकार की। अहिरावण श्रीराम-लक्ष्मण को पाताल में ले गया । वहाँ देवीजी के स्थान पर उनकी बलि देने के लिए तलवार निकाल ली। उसी समय हे हनुमानजी ! आपने वहाँ पहुँच कर उस राक्षस को ललकारा और उसे सेना समेत मार डाला॥९॥