हरि अनंत हरि कथा अनंता।
कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए।
कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि, हरि अनंत हैं अर्थात उनका कोई पार नहीं पा सकता और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। भगवान श्री रामचंद्र के सुंदर चरित्र का कोई बखान नहीं कर सकता क्युकि सुंदर चरित्र को करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते।
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अनुचित उचित काज कछु होई,
समुझि करिय भल कह सब कोई।
सहसा करि पाछे पछिताहीं,
कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।।
अर्थ: उसी को सभी लोग भला कहते हैं, जो किसी भी कार्य का परिणाम उचित होगा या अनुचित, यह पहले जानकर करता है । ऐसे लोग जो बिना विचारे काम करते हैं वे बाद में पछताते हैं, उनको वेद और विद्वान कोई भी बुद्धिमान नहीं मानता।
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जा पर कृपा राम की होई।
ता पर कृपा करहिं सब कोई॥
जिनके कपट, दम्भ नहिं माया।
तिनके ह्रदय बसहु रघुराया॥
अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि जिन पर भगवान राम की कृपा होती है, उन्हें कोई सांसारिक दुःख छू तक नहीं सकता। और जिस पर परमात्मा की कृपा हो जाती है उस पर तो सभी की कृपा अपने आप होने लगती है । जिनके अंदर कपट, पाखंड, झूठ और माया नहीं होती, उन्हीं के हृदय में रघुपति राम बसते हैं अर्थात उनके पर प्रभु की कृपा सदैव होती है।
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बिनु सत्संग विवेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।
सठ सुधरहिं सत्संगति पाई।
पारस परस कुघात सुहाई।।
अर्थ :तुलसीदास जी कहते है, सत्संग के बिना विवेक नहीं आता और राम जी की कृपा के बिना वह सत्संग नहीं होता, सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। दुष्ट भी सत्संगति पाकर वैसे ही सुधर जाते हैं जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुंदर सोना बन जाता है।
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चौपाई :
हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा। सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा॥
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागभुशण्डि गरुड़ प्रति गाई॥4॥
भावार्थ:-
हे नाथ! आपने श्री रामचरित्र मानस का गान किया, उसे सुनकर मैंने अपार सुख पाया। आपने जो यह कहा कि यह सुंदर कथा काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी से कही थी-॥4॥
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चौपाई :
श्रवनवंत अस को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं॥
ते जड़ जीव निजात्मक घाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती॥3॥
भावार्थ:-
जगत् में कान वाला ऐसा कौन है, जिसे श्री रघुनाथजी के चरित्र न सुहाते हों। जिन्हें श्री रघुनाथजी की कथा नहीं सुहाती, वे मूर्ख जीव तो अपनी आत्मा की हत्या करने वाले हैं॥3॥
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चौपाई :
भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा॥
बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा॥2॥
भावार्थ:-
जो संसार रूपी सागर का पार पाना चाहता है, उसके लिए तो श्री रामजी की कथा दृढ़ नौका के समान है। श्री हरि के गुणसमूह तो विषयी लोगों के लिए भी कानों को सुख देने वाले और मन को आनंद देने वाले हैं॥2॥
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चौपाई :
राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं॥
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहिं निरंतर तेऊ॥1॥
भावार्थ:-
श्री रामजी के चरित्र सुनते-सुनते जो तृप्त हो जाते हैं (बस कर देते हैं), उन्होंने तो उसका विशेष रस जाना ही नहीं। जो जीवन्मुक्त महामुनि हैं, वे भी भगवान् के गुण निरंतर सुनते रहते हैं॥1॥
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दोहा :
नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर।
श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर॥52 ख॥
भावार्थ:-
हे नाथ! आपका मुख रूपी चंद्रमा श्री रघुवीर की कथा रूपी अमृत बरसाता है। हे मतिधीर मेरा मन कर्णपुटों से उसे पीकर तृप्त नहीं होता॥52 (ख)॥
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दोहा :
तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह।
जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह॥52 क॥
भावार्थ:-
हे कृपाधाम। अब आपकी कृपा से मैं कृतकृत्य हो गई। अब मुझे मोह नहीं रह गया। हे प्रभु! मैं सच्चिदानंदघन प्रभु श्री रामजी के प्रताप को जान गई॥52 (क)॥